देश में क्लाउड सीडिंग (Cloud Seeding) के जरिए कृत्रिम बारिश (Artificial Rain) कराने में बड़ी सफलता हासिल हुई है. आईआईटी कानपुर (IIT Kanpur) ने 23 जून को क्लाउंड सीडिंग के लिए एक परीक्षण उड़ान को सफलता पूर्वक आयोजित किया, जिसके जरिए 5 हजार फीट की ऊंचाई से एक पाउडर गिराया गया जिससे कृत्रिम बादल बन गए. ये परीक्षण नगर विमानन निदेशालय यानी डीजीसीए की अनुमति के बाद ही किया गया था. हालांकि इस दौरान बारिश नहीं हुई क्योंकि इसके लिए फ्लेयर्स को फायर नहीं किया गया था. ये सिर्फ उपकरणों के लिए एक ट्रायल था.(cloud seeding in kanpur)
आईआईटी कानपुर के द्वारा कृत्रिम बारिश कराये जाने के लिए इस परियोजना पर कुछ साल पहले से ही काम करना शुरू किया था. इसका नेतृत्व आईआईटी कानपुर के कंप्यूटर विज्ञान और इंजीनियरिंग विभाग द्वारा किया गया. जिसके बाद शुक्रवार को 23 जून को इस परीक्षण को किया गया. आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर मणींद्र अग्रवाल ने इस परीक्षण के किए जाने की पुष्टि की है.(cloud seeding in kanpur)
क्या होता है क्लाउड सीडिंग
दोस्तो, आसमान में आप अकसर बादल देखते होंगे, लेकिन क्या आप जानते हैं कि सभी बादल बरसते नहीं हैं? दरअसल, नमी से भरे बादल खुद ही बरस जाते हैं, जबकि कुछ बरसते ही नहीं। लेकिन जब वे न बरस रहे हों, तो वैज्ञानिकों के पास ऐसी तकनीक है, जिससे वे बादल को बरसने पर मजबूर भी कर सकते हैं। इसे क्लाउड सीडिंग या आर्टिफिशल रेनिंग कहते हैं।
जानते हैं क्लाउड सीडिंग के बारे में : क्लाउड सीडिंग को ऐसे भी समझ सकते हैं। मसलन स्टडी का मूड ना होने पर भी आपके ममा-पापा डांटकर आपको पढ़ने पर मजबूर करते हैं। इसी तरह क्लाउड सीडिंग से बादलों को बरसने को मजबूर किया जाता है। इन दिनों नासिक में क्लाउड सीडिंग की कोशिश की जा रही है, ताकि बारिश हो और पीने के लिए लोगों को पानी मिल पाए। इससे पहले आंध्र प्रदेश में भी इसी तरह से बारिश कराई जा चुकी है। चीन जैसे देशों में तो आर्टिफिशल रेनिंग पुरानी बात हो चुकी है। दिलचस्प बात यह है कि क्लाउड सीडिंग टेक्निक का यूज हवाई अड्डों में धुंध और बादल कम करने के लिए भी किया जाता है।
क्लाउड सीडिंग का पहला प्रदर्शन
कब हुआ शुरू क्लाउड सीडिंग का पहला प्रदर्शन जनरल इलेक्ट्रिक लैब द्वारा फरवरी 1947 में बाथुर्स्ट, ऑस्ट्रेलिया में किया गया था। उसके बाद से तमाम देशों ने इसे यूज किया
कैसे कराते हैं बारिश
क्लाउड सीडिंग के लिए सिल्वर आयोडाइड या ड्राई आइस (ठोस कार्बन डाईऑक्साइड) को रॉकेट या हवाई जहाज के ज़रिए बादलों पर छोड़ा जाता है। हवाई जहाज से सिल्वर आयोडाइड को बादलों के बहाव के साथ फैला दिया जाता है। विमान में सिल्वर आयोडाइड के दो बर्नर या जनरेटर लगे होते हैं, जिनमें सिल्वर आयोडाइड का घोल हाई प्रेशर पर भरा होता है। जहां बारिश करानी होती है, वहां पर हवाई जहाज हवा की उल्टी दिशा में छिड़काव किया जाता है। कहां और किस बादल पर इसे छिड़कने से बारिश की संभावना ज्यदा होगी, इसका फैसला मौसम वैज्ञानिक करते हैं। इसके लिए मौसम के आंकड़ों का सहारा लिया जाता है। इस प्रक्रिया में बादल हवा से नमी सोखते हैं और कंडेस होकर उसका मास यानी द्रव्यमान बढ़ जाता है। इससे बारिश की भारी बूंदें बनने लगती हैं और वे बरसने लगती हैं।
जरूरी है बादल का होना
क्लाड सीडिंग से बारिश तभी संभव है, जब आसमान में बादल मौजूद हों। और बादल भी ऐसे, जिनसे बारिश हो सकती है। ऐसे में इसके लिए मॉनसून का समय सबसे बेहतर रहता है, क्योंकि इस मौसम में बादल में नमी की मात्रा अधिक होती है। फिर क्लाउड सीडिंग से बारिश का होना या नहीं होना उस जगह पर हवा की रफ्तार और दिशा व जगह की प्रकृति वगैरह पर भी निर्भर करता है। आप गौर से देखेंगे तो पाएंगे कि आसमान में तमाम तरह के बादल मंडराते रहते हैं। थोड़ी-सी मेहनत से आप आसमान में मौजूद अलग-अलग तरह के बादलों की पहचान कर सकते हैं। क्लाउड सीडिंग के लिए गुम्बदनुमा और परतदार बादल बेहतर होते हैं, क्योंकि इसमें नमी की मात्रा ज्यादा होती है।